NCERT Solutions Class 11 History in Hindi Chapter 7–(बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ)

 NCERT Solutions Class 11 History in Hindi Chapter 7–(बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ)

NCERT Solutions Class 11 (विश्व इतिहास के कुछ विषय ) 11 वीं कक्षा से Chapter- 7 (बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ) के उत्तर मिलेंगे। यह अध्याय आपको मूल बातें सीखने में मदद करेगा और आपको इस अध्याय से अपनी परीक्षा में कम से कम एक प्रश्न की उम्मीद करनी चाहिए। 
हमने NCERT बोर्ड की टेक्सटबुक्स हिंदी (विश्व इतिहास के कुछ विषय ) के सभी Questions के जवाब बड़ी ही आसान भाषा में दिए हैं जिनको समझना और याद करना Students के लिए बहुत आसान रहेगा जिस से आप अपनी परीक्षा में अच्छे नंबर से पास हो सके।
Solutions Class 11 History in Hindi Chapter 7–(बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ)


एनसीईआरटी प्रश्न-उत्त

Class 11 (विश्व इतिहास के कुछ विषय )

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

पाठ-7 (बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ)

प्रश्न 1.

चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दियों में यूनानी और रोमन संस्कृति के किन तत्त्वों को पुनजीवित किया गया? 

उत्तर-

चौदहवीं और पन्द्रहवीं सदी में यूरोप में परिवर्तनों का दौर चल रहा था। इससे यूनान और रोम भी अछूते नहीं रहे। चौदहवीं और पन्द्रहवीं सदी में लोगों में रोम और यूनानी सभ्यता को जानने की इच्छा बढ़ी। इन सदियों में शिक्षा में उन्नति हो ही चुकी थी। लोगों ने यूनानी और रोम सभ्यताओं पर खोज कार्य प्रारम्भ कर दिए। धर्म, शिक्षा, समाज के प्रति लोग अधिक जागरूक हो गए। नए व्यापारिक मार्ग भी सामने आए। यूरोप में तथा यूरोप के बाहर अनेक खोजे हुईं जिससे अनेक सांस्कृतिक रूपों और समूह सभ्यताओं का पता चला और इन सभ्यताओं के सभी आवश्यक सांस्कृतिक तत्त्वों को पुनजीवित किया गया।

प्रश्न 2.

इस काल की इटली की वास्तुकला और इस्लामी वास्तुकला की विशिष्टताओं की तुलना कीजिए।

उत्तर-

15वीं सदी में रोम नगर को अत्यन्त भव्य रूप में तैयार किया गया। वास्तुकला की इस शैली को ‘क्लासिकी’ कहा गया। क्लासिकी वास्तुविद् भवनों में चित्र बनाते, मूर्ति बनाते तथा अनेक प्रकार की आकृतियाँ उकेरते थे। इटली की वास्तुकला की प्रमुख विशेषता थी– भव्य गोलाकार गुम्बद, भवनों की आन्तरिक सजावट, गोल मेहराबदार दरवाजे आदि। दूसरी ओर अरब वास्तुकला भी अपने चरम पर थी। विशाल भवनों में बल्ब के आकार जैसे—गुम्बद, छोटी मीनारें, घोड़े के खुरों के आकार के मेहराब और मरोड़दार स्तम्भ देखते ही बनते थे। इटली और अरब की वास्तुकला तुलनात्मक दृष्टि से लगभगे समान ही प्रतीत होती थी।

प्रश्न 3.

मानवतावादी विचारों का अनुभव सबसे पहले इतालवी शहरों में क्यों हुआ?

उत्तर-

इटली के नगर निवासी यूनानी और रोम के विद्वानों की कृतियों से परिचित थे पर इन लोगों ने इन रचनाओं का प्रचार-प्रसार नहीं किया। चौदहवीं सदी में अनेक लोगों ने प्लेटो और अरस्तू के ग्रन्थों के अनुवादों को पढ़ा। साथ ही प्राकृतिक विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, औषधि विज्ञान सहित अनेक विषय लोगों के समक्ष आए। इटली में मानवतावादी विषय पढ़ाए जाने लगे। इस प्रकार इटली के नगरवासियों ने मानवतावादी विचारों का अनुभव किया।

प्रश्न 4.

वेनिस और समकालीन फ्रांस में अच्छी सरकार’ के विचारों की तुलना कीजिए।

उत्तर-

इटली में 13वीं सदी में स्वतन्त्र नगर-राज्यों के समूह बन गए थे। इन महत्त्वपूर्ण नगरों में फ्लोरेन्स और वेनिस भी थे। ये गणराज्य थे। वेनिस नगर में धर्माधिकारी और सामन्त वर्ग राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली नहीं थे। नगर के धनी व्यापारी और महाजन नगर के शासन में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। लोगों में नागरिकता की भावना को विकास होने लगा था। दूसरी ओर फ्रांस में नगर राज्य तो थे किन्तु वहाँ निरंकुश शासन तन्त्र का बोलबाला था। र्माधिकारी और लॉर्ड राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली थे। नागरिकों का शोषण साधारण बात थी। फ्रांस के नगर-राज्यों को इसलिए क्रान्ति का सामना करना पड़ा।

संक्षेप में निबन्ध लिखिए।

प्रश्न 5.

मानवतावादी विचारों के क्या अभिलक्षण थे?

उत्तर-

मानववाद

प्राचीन यूनानी दर्शन और साहित्य के अध्ययन के फलस्वरूप लोगों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा। उनकी रुचियों में अच्छे और बुरे के सम्बन्धों के मानदण्डों में भारी परिवर्तन हो गया। यही परिवर्तन मानवतावादी विचारों के अभिलक्षण कहे जा सकते हैं। प्राचीन यूनानी विद्वान मानवता का अध्ययन करते थे। इन यूनानी विद्वानों को मानव रुचि के विषयों का अध्ययन करने में आनन्द आता था, परन्तु इसके विपरीत मध्यकाल में देवत्व (Divinity) या ध्यात्मिक ज्ञान, शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग था और आध्यात्मिक उन्नति उनका एकमात्र लक्ष्यथा। पुनर्जागरण काल में लोग प्राचीन यूनानी साहित्य की ओर आकर्षित हुए तथा उसके आगे मध्यकालीन आत्म-निग्रह तथा वैराग्य के आदर्श फीके पड़ गए एवं मानवता को प्रधानता दी जाने लगी। आत्म-निग्रह की बजाय आत्म-विकास, आत्म-विश्वास और मानव जीवन के सुखों पर जोर दिया जाने लगा, फलस्वरूप व्यक्तिवाद और वैयक्तिक हित की भावना का विकास हुआ। पुनर्जागरण आन्दोलन के इसी रूप को मानववाद (Humanism) कहते हैं। मानववाद का जन्मदाता पेट्रार्क (Petrarch) था, जिसने मानव हितों को विशेष प्रोत्साहन दिया। पेट्रार्क पुराने प्रतिष्ठित साहित्य को इतना अधिक पसन्द करता था कि वह उसका प्रशंसक बन गया। मानववाद का दूसरा बड़ा मर्थक इरास्मस (Erasmus) था। जिसने अपनी पुस्तक ‘Praise of Folly’ में संन्यासियों के अज्ञान तथा अन्धविश्वासों पर कटाक्ष किया। इस प्रकार मानववाद ने प्रत्यक्ष रूप में प्रोटेस्टेण्ट आन्दोलन के लिए मार्ग तैयार कर दिया।

प्रश्न 6.

सत्रहवीं शताब्दी के यूरोपियों को विश्व किस प्रकार भिन्न लगा? उसका एक सुचिन्तित विवरण दीजिए।

उत्तर-

सत्रहवीं शताब्दी ईसवी के यूरोपवासियों को विश्व निम्नलिखित प्रकार से भिन्न लगा

  1. तत्कालीन विभिन्न ग्रन्थों में बताया गया कि ज्ञान-विश्वास पर नहीं टिका रहता बल्कि अवलोकन और परीक्षण पर आधारित होता है।
  2.  वैज्ञानिकों के प्रयासों के फलस्वरूप भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान के क्षेत्र में अनेक अन्वेषण थे जो सर्वथा नए और सुविधाजनक थे।
  3. सन्देहवादियों और नास्तिकों के मन में ईश्वर का स्थान प्रकृति ने ले लिया जो सम्पूर्ण सृष्टि का रचना-स्रोत है।
  4. विभिन्न संस्थाओं ने जनता को जाग्रत करने के लिए अनेक नवीन प्रयोग किए और व्याख्यानों का आयोजन किया।

परीक्षोपयोगी अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.

यूरोप में पुनर्जागरण का प्रारम्भ किस देश में हुआ?

(क) इंग्लैण्ड

(ख) जर्मनी

(ग) फ्रांस

(घ) इटली

उत्तर-

(घ) इटली

प्रश्न 2.

‘दि प्रिन्स ग्रन्थ का लेखक था

(के) दान्ते

(ख) सर्वेण्टीज

(ग) मैकियावली

(घ) बुकेशियो

उत्तर-

(ग) मैकियावली

प्रश्न 3.

टॉमस मूर ने कौन-सी पुस्तक लिखी?

(क) यूटोपिया

(ख) मोनार्कियो

(ग) हेमलेट

(घ) दि प्रिन्स

उत्तर-

(क) यूटोपिया

प्रश्न 4.

‘नई दुनिया की खोज किसने की थी

(क) वास्कोडिगामा

(ख) कोलम्बस

(ग) मैगलेन

(घ) पिजारो

उत्तर-

(ख) कोलम्बस

प्रश्न 5.

गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के प्रतिपादक थे

(क) कोपरनिकस

(ख) न्यूटन

(ग) आर्किमिडीज

(घ) रोजर बेकन

उत्तर-

(ख) न्यूटन

प्रश्न 6.

भारत के मार्ग की खोज किसने की थी

(क) कोलम्बस

(ख) वास्कोडिगामा

(ग) अमेरिगो

(घ) मैगलेन

उत्तर-

(ख) वास्कोडिगामा

प्रश्न 7.

‘लैटिन साहित्य का पिता किसे कहा जाता है?

(क) दान्ते

(ख) पेट्रार्क

(ग) बुकेशियो

(घ) शेक्सपीयर

उत्तर-

(ग) बुकेशियो

प्रश्न 8.

दूरबीन का आविष्कार किसने किया था

(क) गैलीलियो

(ख) आर्किमिडीज

(ग) न्यूटन

(घ) विलियम हार्वे

उत्तर-

(क) गैलीलियो।

प्रश्न 9.

जलमार्ग द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा करने वाला नाविक था

(क) कोलम्बस

(ख) वास्कोडिगामा

(ग) मैगलेन

(घ) अमेरिगो

उत्तर-

(ग) मैगलेन 

प्रश्न 10.

प्रोटेस्टैण्ट धर्म का संस्थापक था

(क) मार्टिन लूथर

(ख) ऑगस्टाइन

(ग) हेनरी चतुर्थ

(घ) जॉन हस

उत्तर-

(क) मार्टिन लूथर

प्रश्न 11.

पहली मुद्रित पुस्तक कौन-सी थी?

(क) गुटेनबर्ग की ‘बाइबिल’

(ख) कोपरनिकस को ग्रन्थ ‘खगोलीय पिण्डों के परिभ्रमण पर विचार

(ग) वेसिलियस का ग्रन्थ ‘दि ह्युमनी कार्पोरिस फाबरिका’

(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं

उत्तर-

(क) गुटेनबर्ग की ‘बाइबिल’

प्रश्न 12.

राफेल कहाँ के चित्रकार थे?

(क) रोम

(ख) फ्रांस

(ग) इटली

(घ) अमेरिका

उत्तर-

(ग) इटली

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

प्रोटेस्टेण्ट सुधार आन्दोलन के दो उद्देश्य लिखिए।

उत्तर-

प्रोटेस्टैण्ट सुधार आन्दोलन 1517 में मार्टिन लूथर ने शुरू किया था। इसके दो उद्देश्य थे

  1. चर्च और मठों में फैले भ्रष्टाचार को दूर करना।
  2.  पोप और पादरियों के जीवन में सुधार करना।

प्रश्न 2.

लियोनार्डो द विन्ची कौन था?

उत्तर-

लियोनार्डो द विन्ची एक महान् कलाकार था। वह अपने दो बहुचर्चित चित्रों ‘द लास्ट सपर और ‘मोनालिसा’ के कारण विश्वभर में प्रसिद्ध था।

प्रश्न 3.

‘यूटोपिया’ किसकी रचना थी?

उत्तर-

‘यूटोपिया’ टॉमस मूर की रचना थी।

प्रश्न 4.

‘पुनर्जा.रण’ का क्या अर्थ है?

उत्तर-

‘पुनर्जागरण’ को अर्थ विद्या का पुनर्जन्म तथा कला, विज्ञान, साहित्य और यूरोपीय भाषाओं का विकास है।

प्रश्न 5.

पुनर्जागरण का प्रारम्भ सर्वप्रथम कब और किस देश में हुआ?

उत्तर-

पुनर्जागरण का प्रारम्भ 1300 ई० में इटली में हुआ।

प्रश्न 6.

छापेखाने का आविष्कार सबसे पहले कब और किस व्यक्ति ने किया?

उत्तर-

जर्मनी के निवासी गुटेनबर्ग ने सबसे पहले 1465 ई० में छापेखाने का आविष्कार किया था।

प्रश्न 7.

डिवाइन कॉमेडी’ नामक पुस्तक किसने लिखी?

उत्तर-

‘डिवाइन कॉमेडी’ नामक पुस्तक दान्ते ने लिखी।

प्रश्न 8.

अमेरिका की खोज किसने की थी?

उत्तर-

अमेरिका की खोज कोलम्बस ने की थी।

प्रश्न 9.

भौगोलिक खोजों के दो परिणाम लिखिए।

उत्तर-

भौगोलिक खोजों के दो परिणाम हैं

  1.  व्यापार व वाणिज्य का विकास, तथा
  2. औपनिवेशिक विस्तार।

प्रश्न 10.

पुनर्जागरण का आरम्भ इटली में ही क्यों हुआ?

उत्तर-

पुनर्जागरण का आरम्भ इटली में ही इसलिए हुआ, क्योंकि तुर्की की कुस्तुनतुनिया विजय के बाद यूनान के विद्वान अपनी रचनाओं सहित इटली चले आए थे और उन्होंने इसी देश में अध्ययन-अध्यापन करना आरम्भ कर दिया था।

प्रश्न 11.

यूरोप में पुनर्जागरण के कोई दो प्रमुख कारण लिखिए।

उत्तर-

यूरोप में पुनर्जागरण के दो प्रमुख कारण थे

  1. भौगोलिक खोजें तथा
  2. वैज्ञानिक आविष्कार।

प्रश्न 12.

इटली के किन्हीं दो चित्रकारों के नाम लिखिए।

उत्तर-

इटली के दो प्रमुख चित्रकारों के नाम हैं

  1. माइकेल एंजिलो तथा
  2. रफेल।

प्रश्न 13.

पुनर्जागरण काल के किन्हीं दो वैज्ञानिकों के नाम बताइए।

उत्तर-

पुनर्जागरण काल के दो प्रमुख वैज्ञानिकों के नाम हैं

  1. कोपरनिकस तथा
  2. गैलीलियो।

प्रश्न 14.

निम्नलिखित में से किसी एक का संक्षिप्त परिचय दीजिए

  1. पेट्रार्क
  2.  माइकेल एंजिलो
  3.  रफेल
  4.  टॉमस मूर
  5.  मैकियावली
  6.  लियोनार्डो द विन्ची
  7. गुटेनबर्ग
  8.  गैलीलियो
  9.  कोपरनिकस
  10.  दान्ते
  11. फ्रांसिस बेकन
  12. हेनरी सप्तम

उत्तर-

 1. पेट्रार्क :

यह इटली का महान् कवि तथा मानववाद का संस्थापक था। उसने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में व्याप्त दोषों को कटु आलोचना की थी।

2. माइकेल एंजिलो :

यह इटली का एक प्रसिद्ध कलाकार था। उसके बनाए चित्रों में ‘द लास्ट

जजमेण्ट’ तथा ‘द फॉल ऑफ मैन’ विशेष उल्लेखनीय हैं।

3. रफेल :

यह इटली का एक प्रतिभाशाली चित्रकार था। इसकी गणना विश्व के उच्चकोटि के

कलाकारों में की जाती है। ‘मेडोना’ के चित्र, रफेल की चित्रकारी का सर्वश्रेष्ठ नमूना हैं।

4. टॉमस मूर :

यह उच्चकोटि का साहित्यकार था। इसकी कृतियों में ‘यूटोपिया’ विशेष . उल्लेखनीय है। इसमें तत्कालीन समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य किया गया है।

5. मैकियावली :

मैकियावली को आधुनिक राजनीतिक दर्शन का जनक माना जाता है। यह | फ्लोरेन्स का एक महान् इतिहासकार था। अपनी रचना ‘द प्रिन्स’ में उसने एक नए राज्य के स्वरूप की कल्पना की है।

6. लियोनार्डो द विन्ची :

यह इटली का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसके चित्रों में ‘द लास्ट सपर’ तथा ‘मोनालिसा’ प्रमुख हैं। चित्रकार होने के अतिरिक्त यह एक उच्चकोटि का मूर्तिकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक, इन्जीनियर, गायक तथा कवि भी था।इस प्रकार लियोनार्डो द विन्ची अपने बहुमुखी गुणों के लिए जग प्रसिद्ध है।

7. गुटेनबर्ग :

जर्मनी, निवासी गुटिनबर्ग ने यूरोप में छापेखाने का आविष्कार किया था। ‘बाइबिल’ इसके द्वारा मुद्रित पहली पुस्तक थी, जो 1465 ई० में प्रकाशित हुई थी।

8. गैलीलियो :

यह इटली का प्रसिद्ध वैज्ञानिक था। उसने दूरबीन की सहायता से नक्षत्रों के सम्बन्ध में अनेक तथ्यों का पता लगाया था।

9. कोपरनिकस :

यह एक प्रसिद्ध खगोलशास्त्री था। ‘खगोलीय पिण्डों के परिभ्रमण परे विचार’ नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ इसी की देन है। कोपरनिकस ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है।

10. दान्ते :

यह इटली का एक प्रसिद्ध कवि था। इसने लैटिन भाषा में अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें ‘डिवाइन कॉमेडी’ विशेष उल्लेखनीय है। इसमें उसकी कविताओं का संकलन हैं।

11. फ्रांसिस बेकन :

यह पुनर्जागरण काल का अंग्रेजी राजनीतिज्ञ और साहित्यकार था। इसने उच्चकोटि के निबन्धों की रचना की थी।

12. हेनरी सप्तम :

यह इंग्लैण्ड में ट्यूडर वंश का संस्थापक था। उसने ‘गुलाबों के युद्ध’ में विजय प्राप्त की थी।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

जैकब बर्कहार्ट कौन था? इतिहास पर उसके क्या विचार थे?

उत्तर-

जैकब बर्कहार्ट स्विट्जरलैण्ड के ब्रेसले विश्वविद्यालय के इतिहासकार थे और जर्मन इतिहासकार लियोपोल्ड वॉन रांके के शिष्य थे। वे अपने गुरू के इस कथन—“एक इतिहास राज्यों एवं राजनीति का अध्ययन करता है”–से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार इतिहास लेखन के लिए राजनीति ही सब कुछ नहीं है। इतिहास का सम्बन्ध संस्कृति और राजनीति दोनों से है। उन्होंने अपने अध्ययन द्वारा स्पष्ट किया है कि 14वीं से 17वीं सदी तक इटली के नगरों में मानवतावादी संस्कृति का विकास हुआ था। उनका मत था कि संस्कृति इस नए विश्वास पर आधारित थी कि व्यक्ति एक इकाई के रूप में स्वयं के बारे में निर्णय लेने और अपनी दक्षता को आगे बढ़ाने में समर्थ थे।

प्रश्न 2.

धर्म-सुधार क्या था? इसके क्या उद्देश्य थे? 

उत्तर-

सोलहवीं शताब्दी से पूर्व तक ईसाई धर्म के दो प्रकार के चर्च थे-ऑर्थोडॉक्स चर्च (Orthodox) तथा रोमन कैथोलिक चर्च। ऑर्थोडॉक्स चर्च पूवी देशों में थे और इन चर्चा का प्रमुख केन्द्र कुस्तुनतुनिया था, लेकिन धीरे-धीरे ऑर्थोडॉक्स चर्चे की महत्ता घटने लगी और रोमन कैथोलिक चर्चा की महत्ता बढ़ने लगी, क्योंकि ये चर्च ज्यादातर पश्चिम यूरोप में थे। रोमन कैथोलिक चर्चा की शक्ति भी अत्यधिक थी इसलिए ये विद्रोह मुख्यतया रोमन कैथोलिक चर्चा के विरुद्ध ही थे। इस विद्रोह के परिणामस्वरूप चर्च में अनेक सुधार हुए और कई नए प्रगतिशील चर्च संगठित हुए।इसलिए इस विद्रोह को धर्म-सुधार (The Reformation) कहते हैं। धर्म-सुधार के दो मुख्य उद्देश्य थे—(1) ईसाई धर्म में पनपे पाखण्ड का परिमार्जन कर उसे पुनः शुद्ध रूप प्रदान करना, तथा (2) पोप के धार्मिक और राजनीतिक प्रभुता सम्बन्धी अधिकारों को ठुकराना। इस प्रकार धर्म-सुधार आन्दोलन धार्मिक और राजनीतिक दोनों ही प्रकार का आन्दोलन था।

प्रश्न 3.

जॉन विकलिफ कौन था? धर्म सुधार में उसने क्या योगदान दिया? 

उत्तर-

पोप के अधिकारों का विरोध 14वीं  शताब्दी से ही प्रारम्भ हो गया था। सर्वप्रथम अंग्रेज पादरी जॉन विकलिफ (1320-1384 ई०) ने रोमन कैथोलिक चर्च के दोषों को जनसाधारण के सम्मुख रखा। वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर कार्य करता था। उसको विद्वानों ने ‘धर्म-सुधार का प्रभात नक्षत्र’ (The Morning Star of Reformation) कहकर गौरव प्रदान किया। उसने ‘बाइबिल’ का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया जिससे इंग्लैण्ड की जनता को ईसा मसीह का धर्म-सन्देश प्राप्त करना सुगम हो गया। विकलिफ एक महान् विचारक एवं सुधारक था। उसका कथन था कि पोप पृथ्वी पर ईसा मसीह का प्रतिनिधि नहीं है वरन् वह एक महान् आत्मा के सिद्धान्तों के विरुद्ध आचरण करता है। मिशनरी में जीवन व्यतीत करना धार्मिक दृष्टिकोण से आवश्यक नहीं है। ईसाइयों को केर्पल “बाइबिल’ के सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए और चर्च को सम्राट के अधीन होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसने पादरियों के वासनासिक्त एवं धन-लोलुप जीवन की कटु आलोचना कर पाखण्ड और भ्रष्टाचार में लिप्त धर्म के ठेकेदारों को आवरणरहित किया।

प्रश्न 4.

मार्टिन लुथर कौन था?

उत्तर-

मार्टिन लूथर का जन्म यूरिन्ज्यिा नामक स्थान पर 1483 ई० में हुआ था। उसने एरफर्ट के विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। 1505 ई० में वह धर्म प्रचारक बन गया। मठ में अपने को कड़े अनुशासन में रखने के बावजूद लूथर को आन्तरिक शक्ति न मिली। लूथर ने मठ छोड़ दिया और विटनबर्ग के विश्वविद्यालय में ब्रह्मविद्या (Theology) का प्रोफेसर हो गया। धर्मशास्त्र के अध्ययन और अध्यापन के दौरान रोमन कैथोलिक चर्च के कई मन्तव्यों के बारे में लूथर के मन में अनेक शंकाएँ पैदा हो गईं। इसी कारण 1510 ई० में अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसने रोम का भ्रमण किया। रोम में उसने अपनी आँखों से पोप तथा पादरियों का भ्रष्ट जीवन देखा। उस समय पोप अपने धार्मिक कर्तव्य भूलकर भोग-विलास में लिप्त रहते थे। यह देखकर लूथर पोप के विरुद्ध हो गया तथा उसे धर्म से ग्लानि हो गई। उसने 95 सिद्धान्तों की एक सूची प्रस्तुत की जिसमें पोप के सिद्धान्तों का विरोध किया गया था। यह सूची उसने गिरजाघर के मुख्य द्वार पर टाँग दी। इसमें तर्क द्वारा पोप के धर्म का विरोध किया गया था लूथर का यह कथन था कि इस विषय में कोई भी व्यक्ति उससे तर्क कर सकता है। पोप के धर्म का विरोध करने के कारण लूथर द्वारा प्रचलित यह धर्म ‘प्रोटेस्टैण्ट धर्म’ (Protestant Religion) के नाम से सम्बोधित किया गया। जर्मनी में इस धर्म का प्रचार तीव्रता से हुआ। जर्मनी में प्रोटेस्टैण्ट चर्च की स्थापना की गई तथा उत्तरी जर्मनी की अधिकांश जनता लूथर के नवीन धर्म की अनुयायी बन गई।

प्रश्न 5.

प्रोटेस्टैण्ट धर्म की सफलता के क्या कारण थे?

उत्तर-

मार्टिन लूथर द्वारा प्रचलित प्रोटेस्टैण्ट धर्म का जर्मनी में शीघ्रतापूर्वक प्रचार हुआ। इस धर्म-प्रसार की सफलता के अग्रलिखित कारण थे

  1. पोप एवं उच्च पादरियों के भ्रष्ट जीवन को देखकर अनेक जिज्ञासु व्यक्तियों को प्रचलित धर्म के विषय में सन्देह होने लगा था; अतः जब लूथर ने धर्म-सुधार आरम्भ किया तो अधिकांश जनता ने उसका धर्म स्वीकार कर लिया। लूथर से पूर्व भीशिक्षित वर्ग को धर्म के विषय में अविश्वास प्रकट होने लगा था।
  2. चर्च के अन्धविश्वासपूर्ण, भ्रष्ट तथा अनैतिक जीवन के विपरीत लूथर ने सरलता एवं पवित्रता का जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी जिसके कारण उसके असंख्य अनुयायी बन गए।
  3.  लूथर जिस समय जर्मनी में धर्म प्रसार का कार्य कर रहा था, उस समय पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम अन्य समस्याओं के समाधान में संलग्न था। यद्यपि उसने लूथर को नास्तिक | घोषित कर दिया किन्तु उसके विरुद्ध वह कोई प्रतिकारात्मक कार्यवाही करने में असमर्थ रही।
  4.  लूथर ने अपने धर्म का प्रचार जर्मन भाषा में किया जिसे जर्मन लोग सरलतापूर्वक समझ सकते थे। इस प्रकार राष्ट्र-भाषा के प्रसार द्वारा उसने जर्मनों में राष्ट्र-भक्ति की भावना जाग्रत कर दी तथा विदेशी पोप के स्थान पर जर्मनों ने अपने राष्ट्र के नेता का अनुसरण आरम्भ कर दिया।

प्रश्न 6.

लियोनार्डो द विन्ची क्यों प्रसिद्ध था?

उत्तर-

लियोनाड द विन्ची रूपचित्र का विशेषज्ञ था। उसने चित्रों को यथार्थवादी रूप देने का प्रयास किया। इसकी आश्चर्यजनक अभिरुचि वनस्पति विज्ञान, शरीर रचना विज्ञान से लेकर गणितशास्त्र और कला तक विस्तृत थी। उसके प्रसिद्ध चित्र ‘मोनालिसा’ और ‘द लास्ट सपर’ थे। उसकी आकाश में उड़ने की प्रबल इच्छा प्रबल इच्छा थी। वह वर्षों तक पक्षियों के उड़ने का निरीक्षण करता रहा और एक उड़ने वाली मशीन का डिज़ाइन बनाया।

प्रश्न 7.

प्रोटेस्टैण्ट धर्म के उदय के क्या कारण थे?

उत्तर-

यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन, ने चर्च के दोषों का भण्डाफोड़ कर दिया। सारे यूरोप में पोप की प्रभुसत्ता के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं। इस प्रकार कैथोलिक धर्म की बुराइयों के विरोध में प्रोटेस्टैण्ट (सुधारवादी) धर्म का उदय हुआ। प्रोटेस्टैण्ट धर्म के उदय के मूल कारण पोप की निरंकुश सर्वोच्च सत्ता, चर्च का भ्रष्टाचार और कैथोलिक धर्म के अन्धविश्वास एवं धार्मिक पाखण्ड थे।

प्रश्न 8.

पुनर्जागरण की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर-

पुनर्जागरण की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं

  1. पुनर्जागरण ने धार्मिक विश्वास के स्थान पर स्वतन्त्र चिन्तन को महत्त्व देकर तर्क-शक्ति का  विकास किया।
  2.  पुनर्जागरण ने मनुष्य को अन्धविश्वासों, रूढ़ियों तथा चर्च के बन्धनों से छुटकारा दिलाया और उसके व्यक्तित्व का स्वतन्त्र रूप से विकास किया।
  3. पुनर्जागरण ने मानववादी विचारधारा का विकास किया व मानव जीवन को सार्थक बनाने की शिक्षा दी।
  4. पुनर्जागरण ने केवल यूनानी और लैटिन भाषाओं के ग्रन्थों को ही नहीं वरन् देशज भाषाओं के साहित्य के विकास को भी प्रोत्साहन दिया।
  5.  चित्रकला के क्षेत्र में पुनर्जागरण ने यथार्थ चित्रण को प्रोत्साहन दिया।
  6.  विज्ञान के क्षेत्र में पुनर्जागरण ने निरीक्षण, अन्वेषण, जाँच तथा परीक्षण को महत्त्व दिया।

प्रश्न 9.

कैथोलिक धर्म की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर-

ईसाई धर्म में दो सम्प्रदाय बन गए थे। पहला सम्प्रदाय ‘रोमन कैथोलिक’ और दूसरा ‘प्रोटेस्टेण्ट’ कहलाया। रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय प्राचीन ईसाई धर्म के सिद्धान्तों का समर्थक है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी रोम के पोप को अपना धर्मगुरु मानते हैं और उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं।

प्रश्न 10.

पोप के क्या-क्या धार्मिक अधिकार थे?

उत्तर-

मध्य युग में रोम के पोप के निम्नलिखित अधिकार थे

  1. वह किसी भी ईसाई धर्म के अनुयायी राजा को आदेश दे सकता था तथा उसे धर्म से बहिष्कृत कर उसके राज्याधिकार की मान्यता को समाप्त कर सकता था।
  2.  पोप की अपनी सरकार, अपना कानून, अपने न्यायालय, अपनी पुलिस और अपनी सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था थी।
  3. पोप रोमन कैथोलिक धर्म के अनुयायी राजाओं के आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप कर सकता था।
  4.  पोप रोमन कैथोलिक जनता से कर वसूल किया करता था। वह उन्हें चर्च के नियमों के अनुसार आचरण करने का आदेश भी देता था।
  5.  पोप को रोमन कैथोलिक राज्यों में चर्च के लिए उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त और पदच्युत करने का अधिकार प्राप्त था।

प्रश्न 11.

काउण्टर रिफॉर्मेशन से आप क्या समझते हैं?

उत्तर-

लूथर द्वारा प्रचलित धर्म-सुधार की लहर ने सम्पूर्ण यूरोप को आश्चर्यचकित कर दिया। लुथर और काल्विन के विचारों ने यूरोप के प्रत्येक देश में धार्मिक उद्धार को प्रसारित कर दिया था। रोमन कैथोलिक धर्म के प्रमुख केन्द्र इटली एवं स्पेन भी इसके प्रभाव से वंचित न रह सके। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यदि इसे धर्म-सुधार को रोका न गया तो कहीं यह रोमन कैथोलिक धर्म को आत्मसात् न कर ले। धर्म-सुधार आन्दोलन के प्रारम्भ में रोमन चर्च ने अपने दोष दूर करने की चिन्ता नहीं की। लेकिन जब इस आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो रोमन चर्चा का ध्यान अपने दोषों की तरफ गया और कैथोलिक धर्म में अनेक सुधार किए गए, यद्यपि शताब्दियों से प्रचलित रोमन कैथोलिक धर्म की नींव इतनी सुदृढ़ थी कि उसका उखड़ना असम्भव था। किन्तु फिर भी प्रोटेस्टैण्ट धर्म को रोकने के लिए पोप और उसके अनुयायियों ने प्रयत्न आरम्भ कर दिए। इसे ही काउण्टर रिफॉर्मेशन (प्रतिसुधार आन्दोलन) कहा जाता है। वे लोग निरन्तर प्रोटेस्टैण्ट धर्म का समूल नाश करने के लिए योजनाएँ बनाते रहे। यद्यपि प्रोटेस्टैण्ट धर्म को समाप्त करने में उन लोगों को सफलता न मिली, किन्तु उसकी प्रगति को अवश्य अवरुद्ध कर दिया गया। इसे ही काउण्टर रिफॉर्मेशन या प्रतिसुधार आन्दोलन कहा जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

पुनर्जागरण के क्या कारण थे? इसका यूरोप पर क्या प्रभाव पड़ा? या पुनर्जागरण से आप क्या समझते हैं? यूरोप में पुनर्जागरण के क्या कारण थे?

उत्तर-

पुनर्जागरण का अभिप्राय

‘पुनर्जागरण’ शब्द, फ्रांसीसी शब्द ‘रिनेसान्स’ का हिन्दी रूपान्तर है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘फिर से जीवित हो जाना।’ स्वेन के अनुसार, “पुनर्जागरण एक व्यापक शब्द है जिसका प्रयोग उन सभी बौद्धिक परिवर्तनों के लिए किया जाता है जो मध्य युग के अन्त में तथा आधुनिक युग के प्रारम्भ में दृष्टिगोचर हो रहे थे। दूसरे शब्दों में, पुनर्जागरण से तात्पर्य उस अवस्था से होता है जब मानव समाज अपनी पुरानी सांस्कृतिक और राजनीतिक अवस्थाओं से जागकर नवीन उपयोगी परिवर्तनों के लिए उत्सुक हो जाता है। इस प्रकार जब प्रचलित जीवन-परम्पराओं में क्रान्तिकारी सुधार होने से समाज की कायापलट हो जाती है तो यह स्थिति पुनर्जागरण कहलाती है। इससे राज्य, राजनीति, धर्म, संस्था और भौतिक जीवन में सुधारों की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

यूरोप में पुनर्जागरण के कारण

यूरोप में पुनर्जागरण के निम्नलिखित कारण थे

1. धर्मयुद्धों का प्रभाव :

मध्ययुग में तुर्को और ईसाइयों के मध्य इस्लाम धर्म के प्रचार और ईसाईधर्म की सुरक्षा के कारण अनेक धर्मयुद्ध हुए। इन धर्मयुद्धों ने ईसाई संस्कृति को बहुत क्षति पहुँचाई; अतः ईसाई संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए पुनर्जागरण का वातावरण तैयार होने लगा।

2. धर्म के प्रति नवीनतम मान्यताओं का विकासा :

यूरोप में अभी तक लोगों की धर्म के प्राचीन सिद्धान्तों में आस्था थी। स्वर्ग और नरक के विचारों से प्रेरित होकर यूरोपीय समाज पुरातन जीवन से जुड़ा आ रहा था, परन्तु अब धर्म के क्षेत्र में नए विचारों का विकास होने लगा। इन नवीन मान्यताओं से ही धार्मिक क्षेत्र में पुनर्जागरण उत्पन्न हुआ।

3. सामन्तवाद का प्रभाव :

तत्कालीन राज्य-प्रबन्ध से जनता बहुत दुःखी हो चुकी थी। इसके अन्तर्गत चली आ रही सामन्तवादी प्रथा से जनता को अपार कष्ट हुए। सामन्तवाद के कष्टों से मुक्ति पाने के लिए कृषकों और मजदूरों ने पुनर्जागरण के आन्दोलन को तीव्र कर दिया।

 4. नवीन क्षेत्रों की खोज :

यूरोप के नाविकों ने नवीन क्षेत्रों की खोज करना प्रारम्भ कर दिया। इन | नवीन क्षेत्रों की सभ्यताओं के आमेलन से भी पुनर्जागरण को स्वाभाविक रूप से बल मिला।

5. शिक्षा का बढ़ता हुआ प्रभाव :

मध्य युग में शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष प्रगति हुई। शिक्षा-जगत में नवीन ज्ञान और विचारों को विकास हुआ। फ्रांस और इंग्लैण्ड के कुछ राजाओं ने भी नवीन विज्ञानों; जैसे-भूगोल, खगोल, गणित, चिकित्सा-विज्ञान आदि के पठन-पाठन पर अधिक बल दिया।

6. छापेखाने का आविष्कार :

1465 ई० में जर्मनी के गुटिनबर्ग नामक व्यक्ति ने छापेखाने का आविष्कार किया। 1476 ई० में विलियम कैक्सटन ने इंग्लैण्ड में अपना छापाखाना खोला। इसके पश्चात छापाखानों की संख्या में तेजी के साथ वृद्धि होने लगी। इसके फलस्वरूप पुस्तकों की छपाई सरल हो गई और ज्ञान की धरा द्रुत गति से प्रवाहित होने लगी।

7. आविष्कारों का प्रभाव : 

यूरोप में विभिन्न वैज्ञानिकों ने नए-नए आविष्कार करने प्रारम्भ कर दिए। न्यूटन, गैलीलियो, रोजर बेकन तथा कोपरनिकस जैसे वैज्ञानिकों के आविष्कारों से | विज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति आ गई। विज्ञान ने पुनर्जागरण के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

8. कलाओं का प्रभाव :

कला के विभिन्न क्षेत्रों में भी निरन्तर विकास हो रहा था। चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला, भवन-निर्माण कला में उपयोगी परिवर्तन हुए थे। इस युग के प्रमुख कलाकारों में रफेल, माइकल एंजिलो, लियोनार्डो द विन्ची केनाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस काल के कलाकारों की मानवतावादी कृतियों ने प्रेम, मैत्री और वात्सल्य का भाव प्रस्तुत किया; अतः जनसामान्य में यह भावना जाग्रत हो गई कि मनुष्य को उचित सम्मान मिलना चाहिए। फलतः अब वह धर्म और ईश्वर के स्थान पर मानव-मात्र के प्रति आस्थावान हो उठा। इस प्रकार उसमें एक नए दृष्टिकोण का उदय हुआ।

प्रश्न 2.

यूरोप में पुनर्जागरण के प्रसार का विवरण दीजिए।

उत्तर-

पुनर्जागरण का प्रसार यूरोप में साहित्य, कला एवं विज्ञान के क्षेत्र में पुनर्जागरण का तीव्र गति से प्रसार हुआ, जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. साहित्य में पुनर्जागरण–सर्वप्रथम इटली में साहित्यिक पुनर्जागरण आरम्भ हुआ। इटली के पहले महान कवि दान्ते (1265-1321 ई०) ने ‘डिवाइन कॉमेडी’ नामक महाकाव्य लिखा। दान्ते के बाद ‘मानववाद के पिता पेट्रार्क ने लैटिन साहित्य पर अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें ‘अफ्रीका’, ‘कैवलियर’,
‘लेटर्स’ तथा ‘ओनेट्स’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पेट्रार्क के शिष्य बुकेशियो (1313-1376 ई०) जिसे लैटिन साहित्य का पिता’ कहा जाता है, ने विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ‘डेकामरान की कहानियाँ लिखी। मैकियावली, जिसे इटली का चाणक्य’ माना जाता है, ने ‘दि प्रिन्स’ तथा ‘दि आर्ट वार’ नामक ग्रन्थों की रचना की। लोरेन्जी डी मेडोसी, मिरन डोना, टैसो आदि अन्य महान इटैलियन लेखकों ने अनेक पुस्तकें लिखकर इटली में पुनर्जागरण का प्रसार किया। पुनर्जागरण की भावना से प्रभावित होकर फ्रांस के कई लेखकों, कवियों ने फ्रांसीसी भाषा में अनेक पुस्तकें लिखीं। इनमें फ्रांसिस रबेल
(Francis Rabelais, 1311-1404 ई०) तथा मॉण्टेन (Montaine) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। फ्रांस के धर्म सुधारक जॉन काल्विन (1509-1564 ई०) ने फ्रेंच गद्य में अनेक रचनाएँ लिखीं। इंग्लैण्ड में ज्योफ्रे चॉसर (Chaucer, 1340-1440 ई०) ने ‘कैण्टरबरी टेल्स’ नामक विश्वप्रसिद्ध कविताएँ लिखीं। शेक्सपीयर (1564-1661 ई०), जिसे अंग्रेजी कविता का जनक’ कहते हैं, ने ‘रोमियो-जूलियट’, ‘मर्चेण्ट ऑफ वेनिस’, ‘हैमलेट’, ‘मैकबेथ’, ‘ओथेलो’, हेनरी चतुर्थ’, ‘वेल्थनाइट’, ‘दि टेम्पेस्ट’ आदि नाटक लिखे। टॉमस मूर (1478-1535 ई०) ने यूटोपिया’ नामक ग्रन्थ लिखा। जॉन कोलेट (1466-1519 ई०), एडमण्ड स्पेन्सर (Edmund Spenser, 1552-1589 ई०), फ्रांसिस बेकन (1561-1626 ई०), क्रिस्टोफर मार्लो (1564-1593 ई०) आदि ने अनेक पुस्तकों की रचना की। स्पेन, पुर्तगाल, जर्मनी, हॉलैण्ड आदि देशों पर भी पुनर्जागरण का प्रभाव पड़ा। स्पेन में सर्वेण्टीज (1547-1616 ई०), पुर्तगाल में केमोन्स, जर्मनी में मार्टिन लूथर तथा हॉलैण्ड में इरास्मस (1466-1536 ई०) जैसे महान् लेखक उत्पन्न हुए। सर्वेण्टीज ने ‘डॉन क्विकजाट’ (शेखचिल्ली जैसी कहानियाँ) तथा इरास्मस ने ‘दि प्रेज ऑफ फॉली’ नामक विश्वप्रसिद्ध | पुस्तकें लिखीं।

2. कला में पुनर्जागरण :

पुनर्जागरण के फलस्वरूप वास्तुकला के क्षेत्र मेंएक नई शैली गॉथिक विकसित हुई। इस शैली के उत्कृष्ट नमूने रोम का ‘सेण्ट पीटर गिरजाघर’, लन्दन का ‘सेण्ट पॉल गिरजाघर’ तथा वेनिस (यूनान) में ‘सेण्ट मार्क का गिरजाघर’ है। इटली के कलाकारोंने ‘स्पेन का राजमहल’ और जर्मनी का ‘हैडलबर्ग का किला’ भी बनाया, जो आज भी दर्शनीय हैं। इटली के विख्यात कलाकार गिबर्टी और डेनेटेलो ने मूर्तिकला में एक नई शैली को जन्म दिया। फ्लोरेंस(इटली) में मूर्तिकला का अत्यधिक विकास हुआ। इटली के सीमव्यू (1240-1302 ई०) तथा गिटो (1276-1337 ई०) ने चित्रकला की एक नई शैली को जन्म दिया। लियोनार्डो दविन्ची (1452-1519 ई०)का चित्र ‘दि लास्ट सपर आज भी विश्व में चित्रकला की एक महान् कृति माना जाता है। इसके मोनालिसा के चित्र बड़े सजीव हैं। माइकल एंजिलो (1475-1564 ई०) द्वारा रोम के महल तथा गिरजाघरमें बनाए गए चित्र, मानव जीवन की साकार प्रतिमा प्रतीत होते हैं। उसके द्वारा निर्मित चित्र ‘दि फाल ऑफ मैन’ को आज भी चित्रकला की महान कृति माना जाता है। रफेल (1483-1520 ई०) का चित्र‘मेडोनाज’ आज भी बहुत प्रसिद्ध है। इटली के अतिरिक्त जर्मनी के ड्यूरर, हंस , हालबेन तथा हॉलैण्ड के ह्यूबर्ट, जॉन आदि चित्रकारों ने बहुमूल्य कृतियों कानिर्माण किया।

3. विज्ञान में पुनर्जागरण :

पुनर्जागरण काल में विज्ञान के क्षेत्र में भी अनेक नए आविष्कार हुए। सर्वप्रथम रोजर बेकन (1214-1295 ई०) ने प्रयोगों द्वारा वैज्ञानिक तथ्यों का पता लगाने की परिपाटी डाली। कोपरनिकस (1473-1553 ई०) ने यह सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, न कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, जैसा कि उस समय विश्वास था। फ्रांसिस बेकने तथा देकार्ते ने विज्ञान में विश्लेषण विधि को जन्म दिया। गैलीलियो (1560 1642 ई०) ने दूरदर्शक यन्त्र का आविष्कार किया और गति विज्ञान के अध्ययन की नींव डाली। न्यूटन (1642-1726 ई०) ने गुरुत्वाकर्षण नियम का पता लगाया। हार्वे ने मानव शरीर में रक्त परिवहन एड़ियस बेसालियस ने रसायन विज्ञान तथा शल्य चिकित्सा और लियोनार्डो द विन्ची ने शरीर विज्ञान, जीव विज्ञान, तकनीकी व रेखागणित के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण, निष्कर्ष निकाले।

प्रश्न 3.

पुनर्जागरण के प्रभाव बताइए। पुनर्जागरण के फलस्वरूप मानव-जीवन में क्या परिरर्तन हुए?

उत्तर-

पुनर्जागरण का प्रभाव पुनर्जागरण के प्रसार के फलस्वरूप मानव-जीवन में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है

1. आर्थिक दशा और व्यापार में प्रगति :

पुनर्जागरण काल के कारण ही यूरोपीय नाविक नए-नए भौगोलिक देशों की खोज में सफल हुए। नए देशों के बाजार तथा कच्चे मालों की उपलब्धि के कारण यूरोपीय देशों के व्यापार तथा उद्योगों में बहुत अधिक प्रगति हुई। यूरोप में आर्थिक विकास होने से वहाँ की सम्पन्नता तथा वैभव बढ़ गया। यूरोप के सभी देश व्यापार बढ़ाने तथा धन कमाने में लग गए और उन्होंने अनेक उपनिवेशों की स्थापना की। औद्योगिक नगरों की स्थापना और विकास ने व्यापार तथा उद्योगों को बड़ा प्रोत्साहन दिया। व्यापार की उन्नति के कारण समाज में मध्यम वर्ग का जन्म हुआ। पुनर्जागरण ने यूरोप में ‘वाणिज्यवाद’ को जन्म दिया; अतः यहाँ के देशों में अधिक निर्यात द्वारा स्वर्ण एकत्र करने की प्रवृत्ति बढ़ गई और मध्यम वर्ग धीरे-धीरे प्रभावी होता चला गया।

2. सामाजिक जीवन में प्रगति :

पुनर्जागरण के कारण यूरोप के लोगों के जीवन तथा विचारों में व्यापक परिवर्तन हुए। नए विचारों ने अन्धविश्वासों का अन्त करके उन्हें सामाजिक जीवन के प्रति नवीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान किया। समाज से सामन्तवादी प्रथा समाप्त हो गई। समाज में एक नए वर्ग

मध्यम वर्ग का उदय होने से लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं का तीव्रता से विकास हुआ। शिक्षा के प्रसार ने भी समाज में नए विचारों को जन्म दिया। समाज में नवीन जागृति और चेतना जाग उठी। लोग राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो गए। लोगों ने सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों के गर्त से निकलकर सुसंस्कृत जीवन को ग्रहण किया। भौगोलिक खोजों के कारण विश्व के लोग एक-दूसरे के निकट आ गए। इससे समाज में मैत्री और सहयोग का वातावरण उत्पन्न हो गया। जनसाधारण में विद्याध्ययन की ओर रुचि बढ़ गई तथा समाज से अशिक्षा और अज्ञानता दूर हो गई।

3.धर्म पर प्रभाव :

पुनर्जागरण के फलस्वरूप यूरोप के धार्मिक जीवन में भी अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। मध्ययुगीन धार्मिक अन्धविश्वासों और मान्यताओं का खण्डन किया जाने लगा। कैथोलिक धर्म में पर्याप्त सुधार हुआ और प्रोटेस्टेण्ट धर्म की महत्ता बढ़ने लगी। इस्लाम धर्म के बढ़ते प्रसार ने ईसाई समाज को अपने धर्म की रक्षा के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए बाध्य कर दिया। धर्म सुधार-आन्दोलनों ने आडम्बरों, पाखण्डों, भ्रष्टाचारों तथा अन्याय के विरुद्ध कठोर कदम उठाए। इस प्रकार धर्म के क्षेत्र में व्याप्त कुप्रथाएँ समाप्त हो गईं। इसके फलस्वरूप चर्च की निरंकुशता का भी अन्त हो गया। वस्तुतः पुनर्जागरण के फलस्वरूप धर्म का उज्ज्वल स्वरूप निखकर सामने आया। इस दिशा में मार्टिन लूथर तथा जॉन काल्विन । जैसे समाज-सुधारकों ने धर्म को परिष्कृत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

4. भाषा और साहित्य पर प्रभाव :

पुनर्जागरण का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भाषा और साहित्य के क्षेत्र पर भी पड़ा। पुस्तकों की छपाई के कारण ज्ञान का कार्य तेजी के साथ हुआ और लोगों के दृष्टिकोण में तीव्र गति से परिवर्तन आया।

5. राष्ट्रीयता का विकास :

पुनर्जागरण के फलस्वरूप यूरोप में नए राज्यों के उत्कर्ष के साथ-साथ राष्ट्रीयता की भावना भी जाग्रत हुई। सामन्तवाद का अन्त हो जाने से जहाँ एक ओर शक्तिशाली राजसत्ता का उदय हुआ, वहीं दूसरी ओर जनता का महत्त्व भी बढ़ा

प्रश्न 4.

पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दी की भौगोलिक खोजों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। या भौगोलिक खोजों के कारण तथा महत्त्व पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-

नवीन स्थानों की खोज तथा खोज-यात्राएँ।

पुनर्जागरण काल में यूरोप के साहसी नाविकों ने लम्बी-लम्बी समुद्री यात्राएँ करके नवीन देशों की खोज की; अतः पुनर्जागरण काल को ‘खोजों का काल’ भी कहा जाता है। भौगोलिक खोजों के लिए सर्वप्रथम पुर्तगाली और स्पेनिश नाविक उतरे, बाद में इंग्लैण्ड, फ्रांस, हॉलैण्ड व जर्मनी के लोग भी खोज कार्य में जुट गए।

पुनर्जागरण काल में नए देशों की खोज

1. उत्तमाशा अन्तरीप की खोज :

इसकी खोज एक समुद्र-यात्री बारथोलोम्य डियाज ने की थी। 1486 ई० में बारथोलोम्यु अनेक कठिनाइयाँ सहन करने के बाद अफ्रीका के दक्षिणी तट पर पहुँचा, जिसे उसने ‘तूफानों का अन्तरीप’ नाम दिया। बाद में पुर्तगाल के शासक ने इसका नाम ‘उत्तमाशा अन्तरीप’ (Cape and Good Hope) रख दिया।

2. अमेरिका तथा पश्चिमी द्वीपसमूह की खोज :

स्पेनिश राजा फड़नेण्ड की सहायता पाकर साहसी नाविक कोलम्बस, 1492 ई० में तीन समुद्री जहाजों को लेकर भारत की खोज के लिए निकला। परन्तु तैंतीस दिन की समुद्री यात्रा के पश्चात् (वास्तव में उचित मार्ग से भटककर) वह एक नई भूमि पर पहुँच गया। पहले वह समझा कि वह भारत भूमि ही है, परन्तु वास्तव में यह नई दुनिया’ थी। बाद में इटली का एक नाविक अमेरिगो भी यहीं पर पहुंचा। उसी के नाम पर इसका नाम ‘अमेरिका’ पड़ा।

3. न्यूफाउण्डलैण्ड तथा लेख्नडोर की खोज :

यूरोप महाद्वीप के लिए न्यूफाउण्डलैण्ड की खोज इंग्लैण्ड के नाविक जॉन कैबेट की देन थी। 1497 ई० में जॉन कैबेट इंग्लैण्ड के राजा हेनरी सप्तम् की सहायता के लिए पश्चिमी समुद्र की ओर निकला। साहसी नाविक जॉन कैबेट उत्तरी अटलाण्टिक महासागर को पार कर कनाडा के समुद्र तट पर पहुंच गया और उसने ‘न्यूफाउण्डलैण्ड’ की खोज की। उसके पुत्र सेबान्सटियन कैबेट ने लेब्रेडोर’ की खोज की।

 4. भारत के समुद्री मार्ग की खोज :

यूरोप और भारत के मध्य समुद्री मार्ग की खोज पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा ने की थी। वास्कोडिगामा, पुर्तगाल के राजा से आर्थिक सहायता प्राप्त कर इस अभियान पर निकला था। यह नाविक अफ्रीका के पश्चिमी तट से होता हुआ उत्तमाशा अन्तरीप पहुँचा, फिर हिन्द महासागर से होते हुए जंजीबार और वहाँ से पूर्व की ओर बढ़ा। यहाँ से वह भारत के पश्चिमी तट पर स्थित कालीकट के बन्दरगाह पर पहुँचा।

5. ब्राजील की खोज :

1501 ई० में पुर्तगाल के नाविक कैबेल ने एक नए देश ‘ब्राजील की खोज की।

6. मैक्सिको तथा पेरू की खोज:

1519 ई० में स्पेनिश नाविक कोर्टिस ने ‘मैक्सिको’ की तथा | 1531 ई० में पिजारो ने ‘पेरू’ की खोज की।

7. अफ्रीका महाद्वीप की खोज :

इस महाद्वीप की खोज का श्रेय मार्टन स्टेनली तथा डेविड लिविंग्स्टन को प्राप्त है। इन्होंने अफ्रीका को खोजने के उपरान्त अनेक लेख भी लिखे, जिनको | पढ़कर यूरोपवासियों के मन में अफ्रीका में अपने उपनिवेश बसाने की प्रतिस्पर्धात्मक भावना उत्पन्न हुई।

8. पृथ्वी की प्रथम परिक्रमा :

पुर्तगाली नाविक मैगलेन तथा उसके साथियों ने 1519 ई० में समुद्र द्वारा पृथ्वी की प्रथम परिक्रमा करके यह सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी गोल है तथा उसकी परिक्रमा सुगमता से की जा सकती है।

भौगोलिक खोजों का कारण

पुनर्जागरण काल यूरोपीय इतिहास का अत्यधिक प्रगतिशील युग था। इसमें साहित्य व ज्ञान के क्षेत्र में नवीन क्षेत्रों की खोजें तीव्र गति से हुईं, जिस कारण व्यावहारिक रूप में संसार का ज्ञान प्राप्त करने की उत्कंठा लोगों के मन में जाग्रत हुई। इसी उत्कंठा को मूर्तरूप देने के लिए साहसिक लोगों ने संसार का परिभ्रमण कर नवीन भौगोलिक खोजों को उद्घाटित किया तथा मानव के ज्ञान को समृद्ध किया।

भौगोलिक खोजों के परिणाम (महत्त्व)

भौगोलिक खोजों के अनेक महत्त्वपूर्ण परिणाम हुए, जिनका विवरण इस प्रकार है

  1. भौगोलिक खोजों के परिणामस्वरूप भारत जाने का छोटा और नया मार्ग खुल गया।
  2. नए व्यापारिक मार्गों की खोज के कारण विश्व व्यापार में तेजी के साथ वृद्धि होने लगी।
  3.  यूरोप में बड़े-बड़े व्यापारिक केन्द्रों का विकास होने लगा और इंग्लैण्ड, फ्रांस, स्पेन तथा | पुर्तगाल जैसे देश धनी और शक्तिशाली होने लगे।
  4.  यूरोपीय देशों में अपने उपनिवेश बनाने और अपना साम्राज्य बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो गई।
  5. यूरोप के शरणार्थी अमेरिका में आकर बसने लगे और वहाँ अपनी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास करने लगे।

प्रश्न 6.

धर्म सुधार आन्दोलन के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए।

उत्तर-

धर्म सुधार आन्दोलन के प्रमुख कारण धर्म सुधार आन्दोलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

1. पुनर्जागरण का प्रभाव :

धर्म सुधार आन्दोलन को पुनर्जागरण ने बहुत प्रभावित किया। इसने यूरोप के अन्धकार युग को समाप्त कर नवीन आदर्शों को जन्म दिया। उसने तार्किक प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया और यह स्पष्ट किया कि कोई बात इसलिए सही नहीं है कि वह चर्च का आदेश है तथा वह ईश्वरीय वाक्य है, बल्कि इसलिए सही है, क्योंकि वह तर्क और विचार की कसौटी पर खरी उतरती है। इस प्रवृत्ति के कारण लोगों ने अपने प्राचीन धार्मिक विश्वासों में परिवर्तन करने का निश्चय किया।

2. राजनीतिक कारण :

सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में इंग्लैण्ड, स्पेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, ऑस्ट्रिया आदि राष्ट्रीय राज्यों में निरंकुश राजतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी। राष्ट्रीय राज्यों का प्रधान राजा था। रोमन चर्च का प्रधान पोप नहीं चाहता था कि राजा राष्ट्रीय राज्य में सर्वेसर्वा रहे, क्योंकि वह सम्पूर्ण यूरोप के चर्चे का मुखिया स्वयं को मानता था। इसीलिए पोप प्रत्येक राज्य में चर्च के अधिकारियों की नियुक्ति करना अपना एकाधिकार समझता था। लेकिन राजा अपने राज्य में पोप के हस्तक्षेप को सहन करने के लिए तैयार नहीं था। ऐसी स्थिति में राजा और पोप के मध्य तनाव बढ़ने लगा और यह तनाव कालान्तर में धर्म सुधार आन्दोलन का प्रमुख कारण बन गया।

3. चर्च की अपार सम्पत्ति :

मध्य युग में चर्च एक धनी संस्था बन गया था। उसके पास अपार सम्पत्ति थी। चर्च कोई कर राज्य को नहीं देता था; अतः राष्ट्रीय राजाओं ने राजकीय व्यय की , पूर्ति के लिए चर्च की सम्पत्ति को जब्त करने के प्रयास किए। ऐसी परिस्थिति में राज्य और चर्च के मध्य संघर्ष अनिवार्य हो गया।

4. चर्च के दोष : 

मध्य युग में ही चर्च अनेक दोषों का शिकार हो चुका था। वह अनैतिकता के दलदल में बुरी तरह फंस गया था। पृथ्वी पर ईश्वर के दूत पोप ने अपने उच्च आदर्शों को भुलाकर विलासमय वे अनैतिक जीवन बिताना प्रारम्भ कर दिया था। पोप अलेक्जेण्डर बड़ा ही भ्रष्ट था। पोप लियो दशम ने अपनी विलासमयी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुमूल्य धार्मिक मूर्तियों तक को बेच दिया था। इतना ही नहीं, चर्च जनता से धर्म के नाम पर विभिन्न प्रकार के ‘कर वसूल करता था। किसानों को अपनी उपज का 1/10 भाग ‘टिथे’ नामक कर के रूप में चर्च को देना अनिवार्य था। मृतकों को अन्तिम संस्कार तथा अन्य धार्मिक कर्मकाण्डों के लिए पादरी जनता से बहुत ६१ वसूलते थे। पोप लियो दशम ने तो रोम के चर्च के निर्माण के नाम पर भारी धनराशि लेकर चर्च में नए पद बना दिए थे। उसने ‘पापमोचन पत्रों’ (Endulgances) की बिक्री भी प्रारम्भ कर दी थी। इन पत्रों को खरीदकर कोई भी अपराधी अपने अपराध या किए गए पाप से मुक्ति पा सकता था। इतना ही नहीं, पादरियों ने धन लेकर ‘स्वर्ग का टिकट’ तक देना आरम्भ कर दिया था। चर्च की इन बुराइयों ने धर्म सुधार आन्दोलन का मार्ग खोल दिया।

5. अन्य कारण :

चर्च द्वारा सूदखोरी का विरोध, चर्च के अधिकारियों का भ्रष्ट जीवन तथा  रिश्वतखोरी, छोटे और बड़े पादरियों में भेदभाव तथा हेनरी अष्टम के तलाक के प्रश्न में धर्म  सुधार आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

प्रश्न 7.

धर्म सुधार आन्दोलन के प्रभावों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-

धर्म सुधार आन्दोलन के प्रभाव

धर्म सुधार आन्दोलन ने यूरोप पर स्थायी तथा दूरगामी प्रभाव डाला। इसने यूरोप के राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन को बहुत प्रभावित किया। धर्म सुधार आन्दोलन के परिणामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं

1. राजनीतिक परिणाम :

इसने यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना को प्रोतसाहन दिया और राजाओं की निरंकुश सत्ता को मान्यता दे दी। फ्रांस तथा स्पेन को छोड़ कर यूरोप के अधिकांश देशों में प्रोटेस्टैण्ट धर्म की स्थापना हुई। कैथोलिकों तथा प्रोटेस्टैण्टों के बीच धर्म के नाम पर तीस वर्षीय (1618 1648 ई०) युद्ध हुआ।

2.धार्मिक परिणाम :

इस आन्दोलन ने यूरोप के ईसाई देशों की एकता नष्ट कर दी। ‘ईसाई जगत’ शब्द का नामोनिशान मिट गया। इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड, उत्तरी जर्मनी, डेनमार्क, नावें, स्वीडन, नीदरलैण्ड के कुछ प्रदेश रोम के चर्च से अलग हो गए। यूरोप में धार्मिक सहिष्णुता और वैयक्तिक नैतिकता का उदय हुआ। ईसाई धर्म में तीन सम्प्रदायों का जन्म हुआ—लूथर का सम्प्रदाय ‘लूथेरियन’, ‘ज्विगली’ को सम्प्रदाय ‘विगलीयन’ और काल्विन का सम्प्रदाय ‘प्रेसविटेरियन’।

3. आर्थिक परिणाम :

इस आन्दोलन ने यूरोप की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित किया। रोमन चर्च ने सूदखोरी को अनैतिज और अधार्मिक बताया था, लेकिन प्रोटेस्टेण्ट सम्प्रदाय ने इसे  कानूनी घोषित कर दिया। इससे यूरोप में पूँजीवाद का विकास और व्यापार में वृद्धि हुई।

 4.राष्ट्रीय भाषा व साहित्य का विकास :

धर्म सुधार आन्दोलन ने राष्ट्रीय भाषा तथा साहित्य के विकास को प्रोत्साहन दिया। लूथर ने ‘बाइबिल’ का अनुवाद जर्मन भाषा में करके लैटिन भाषा के महत्त्व को कम कर दिया। अब धार्मिक साहित्य राष्ट्रीय भाषाओं में अनुवादित तथा प्रकाशित होने लगा।

5. धर्म सुधार विरोधी आन्दोलन :

धर्म सुधार आन्दोलनों ने ‘धर्म सुधार विरोधी आन्दोलन (Counter Reformation) को जन्म दिया। इस धर्म सुधार विरोधी आन्दोलन के फलस्वरूप कैथोलिक धर्म में अनेक सुधार किए गए तथा रोमन चर्च के दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया। इससे प्रोटेस्टेण्ट धर्म की प्रगति रुक गई। इस प्रकार धर्म सुधार आन्दोलन एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। उसने यूरोप के राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन को प्रभावित किया। वास्तव में पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलन विश्व-इतिहास की युगान्तरकारी घटनाएँ सिद्ध हुईं। इसके साथ ही मध्य युग का अन्त और आधुनिक युग का आगमन हुआ।

प्रश्न 8.

विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में अरबवासियों के योगदान का विवेचन कीजिए।

उत्तर-

सम्पूर्ण मध्यकाल में ईसाई गिरजाघरों और मठों के विद्वान यूनानी और रोमन विद्वानों की कृतियों से परिचित थे। पर इन लोगों ने इन रचनाओं का प्रचार-प्रसार नहीं किया। चौदहवीं सदी में अनेक विद्वानों ने प्लेटो और अरस्तू के ग्रन्थों से अनुवादों को पढ़ना प्रारम्भ किया। इसके लिए वे अपने विद्वानों के ऋणी नहीं थे बल्कि अरब के विद्वानों के ऋणी थे जिन्होंने अतीत की पाण्डुलिपियों का संरक्षण और अनुवाद सावधानीपूर्वक किया था। जबकि एक ओर यूरोप के विद्वान यूनानी ग्रन्थों के अरबी अनुवादों का अध्ययन कर रहे थे दूसरी ओर यूनानी विद्वान अरबी और फारसी विद्वानों की कृतियों को अन्य यूरोपीय लोगों के बीच प्रसार हेतु अनुवाद भी कर रहे थे। ये ग्रन्थ प्राकृतिक विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, औषधि विज्ञान और रसायन विज्ञान से सम्बन्धित थे। टॉलेमी के ‘अलमजेस्ट’ में अरबी भाषा के विशेष अवतरण ‘अल’ का उल्लेख है जोकि यूनानी और अरबी भाषा के बीच रहे सम्बन्धों को प्रकट करता है। मुस्लिम लेखक, जिन्हें इतालवी दुनिया में ज्ञानी माना जाता था, अरबी के हकीम और मध्य एशिया के बुखारा के दार्शनिक इब्नसिना और आयुर्विज्ञान विश्वकोश के लेखक अल राजी थे। स्पेन के अरबी दार्शनिक इब्नरुश्द ने दर्शनिक ज्ञान और धार्मिक विश्वासों के बीच रहे तनावों को सुलझाने की चेष्टा की। उनकी पद्धति को ईसाई चिन्तकों द्वारा अपनाया गया।

प्रश्न 9.

जर्मनी में धर्म सुधार आन्दोलन का प्रसार किस प्रकार हुआ?

उत्तर-

जर्मनी में धर्म-सुधार

धर्म :

सुधार की लहर ने जर्मनी में विशद् रूप धारण कर लिया। यद्यपि इससे पूर्व कई धर्म-सुधार हो चुके थे, किन्तु इस पथ पर सफलतापूर्वक अग्रसर होने वाला प्रथम देश जर्मनी ही था। जर्मनी में धार्मिक सुधार का सूत्रपात करने का श्रेय महान् सुधारक मार्टिन लूथर को है। मार्टिन लूथर (Martin Luther) एक साधारण परिवार का था और विटनबर्ग (wittenburg) के विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था। लूथर का जन्म 10 नवम्बर, 1483 ई० को ‘यूरिन्जिया’ नामक स्थान पर एक कृषक परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था से ही धर्म में उसकी विशेष रुचि थी। यद्यपि उसके पिता की इच्छा उसे कानून पढ़ाने की थी किन्तु उसने धर्मशास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया और 1505 ई० में वह पादरी (missionary) बन गया। पाँच वर्ष पश्चात् उसने रोम का भ्रमण किया और वहाँ के विलासितापूर्ण जीवन का गहराई से अवलोकन किया। तभी से पोप और धर्माधिकारियों के प्रति उसका विश्वास डगमगाने लगा। रोम से लौटकर उसने विटनबर्ग में प्राध्यापक का पद ग्रहण किया तथा वहाँ पर वह धर्मशास्त्र की शिक्षा देने लगा। उसके साहस और स्पष्टता के कारण उसके शिष्य उसका अत्यधिक सम्मान करते थे। लूथर 1510 ई० में रोम गया। वहाँ उसने पोप के दरबार में भ्रष्टाचार का बोलबाला देखा। वहीं उसने धर्म-सुधार की तीव्र आवश्यकता अनुभव की और उसे पूरा करने का संकल्प लिया। धीरे-धीरे कैथोलिक धर्म पर से उसका विश्वास उठता चला गया; क्योकि कैथोलिक धर्म इस समय भोग-विलास, व्यभिचार, भ्रष्टाचार और बाह्याडम्बरों का अड्डा बना हुआ था। धर्म की पुस्तकों के गहन अध्ययन से लूथर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मुक्ति का मार्ग दया एवं क्षमा पर आधारित है। पोप एवं धर्माधिकारी, मनुष्य की इस दिशा में कोई सहायता नहीं कर सकते। प्रारम्भ में तो लूथर को पोप का सक्रिय विरोध करने का साहस नहीं था, किन्तु 1517 ई० में जब पोप ने क्षमा-पत्रों की बिक्री आरम्भ की तो लूथर ने पोप का विरोध प्रारम्भ कर दिया। यह विरोध तीव्र गति से बढ़ता चला गया। क्षमा-पत्रों की बिक्री प्रारम्भ करने वाला पोप लियो दशम (Leo X) था जिसने सेण्ट पीटर का गिरजाघर बनवाने में अपार सम्पत्ति व्यय कर दी और अधिक धन प्राप्त करने के लिए उसने इन क्षमा-पत्रों का निर्माण कराया, जिसका आशय था कि इन पत्रों को खरीदने वाले को ईश्वर के दरबार में पापों से मुक्ति मिल जाएगी तथा उसे कोई दण्ड नहीं भुगतना पड़ेगा। पोप ने विटनबर्ग में भी अपना एक दूत भेजा, जो बड़े उत्साह से इन क्षमा-पत्रों को बेच रहा था। यह देखकर लूथर अत्यधिक दु:खी एवं क्रोधित हुआ और उसने गिरजाघर के द्वार पर एक नोटिस लगा दिया, जिसमें रोमन कैथोलिक धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्तों का विरोध किया गया था तथा इन सिद्धान्तों की एक सूची भी प्रस्तुत की गई थी। इस नोटिस में लूशर ने यह भी घोषणा की थी कि इन सिद्धान्तों पर कोई भी व्यक्ति उससे शास्त्रार्थ कर सकता है। इस प्रकार लूथर ने रोमन कैथोलिक धर्म का दृढ़तापूर्वक विरोध प्रारम्भ कर दिया। दो वर्ष उपरान्त चर्च के एक अत्यन्त योग्य पादरी को उसने वाद-विवाद में पराजित किया तथा यह सिद्ध कर दिया कि केवल पोप और चर्च को ही ईसामसीह के सिद्धान्तों के अर्थ समझने 3-६’ उनकी व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। विकलिफ एवं जॉन हस के समान लूथर ने इस बात का प्रचार किया कि प्रत्येक व्यक्ति ‘बाइबिल’ पढ़ने और उसे समझने का अधिकार रखता है। लूथर के इस विरोध ने पोप को चौंका दिया क्योंकि अब तक ऐसा प्रबल विरोध करने का साहस किसी ने नहीं किया था। इसके अतिरिक्त जर्मनी की बहुत-सी जनता लूथर को अपना धर्मगुरु मानकर उसकी आज्ञाओं का पालन करने लगी थी और उन्होंने पोप के प्रभुत्व के भार को उतार फेंका था। इन सब बातों के कारण पोप लियो देशम क्रुद्ध हो उठा। उसने लूथर को धर्म से बहिष्कृत किया और पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम को आदेश दिया कि वह नास्तिक लूथर को दण्ड दे। पोप ने लूथर को नास्तिक कहना आरम्भ कर दिया था। किन्तु इस समय तक जर्मनी की अधिकांश जनता लूथर की अनुयायी बन चुकी थी और उसको इतना बड़ा दण्ड देना सरल न था। उसको दण्ड देने से गृह-युद्ध होने की पूरी आशंका थी। यहाँ तक कि कुछ शासकों ने उसका पक्ष लेना प्रारम्भ कर दिया और सैक्सनी के शासक फ्रेड्रिक ने खुले रूप में लूथर को शरण दी। उसने घोषणा की कि जब तक मेरे महल की एक भी ईंट शेष रहेगी लूथर का कोई बाल भी बाँकी नहीं कर सकता। इस प्रकार उत्तरी जर्मनी की अधिकांश जनता लूथर के पक्ष में हो गई और वे लोग कैथोलिक धर्म के विरुद्ध विद्रोह करने को तत्पर हो गए। दक्षिणी जर्मनी में   किसानों और मजदूरों न विद्रोह कर दिए और धनिक वर्ग इन विद्रोहों से भयभीत हो उठा। लूथर ने विद्रोहों में धनिकों का पक्ष लिया जिसके कारण किसानों ने उसका विरोध प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि 1525 ई० में इस विद्रोह का दमन कर दिया गया, किन्तु इस विद्रोह ने जर्मनी को भी दो भागों में विभाजित कर दिया। उत्तरी जर्मनी के राज्यों में जनता अधिकांशत: लूथर की अनुयायी थी और दक्षिणी जर्मनी में कैथोलिक चर्च की। किन्तु डेनमार्क और अन्य स्केण्डिनेवियन राज्यों में भी लूथर का धर्म फैल गया इस प्रकार लूथर को प्रोटेस्टैण्ट धर्म का जन्मदाता माना जाने लगा। जर्मनी में काफी समय तक गृह-युद्ध चलता रहा, किन्तु अन्त में 1515 ई० में ऑग्सबर्ग (Augsburg) के स्थान पर दोनों धर्मावलम्बियों में समझौता हो गया। इस सन्धि के द्वारा पवित्र रोमन सम्राट ने यह बात स्वीकार कर ली कि जर्मनी के विभिन्न प्रदेशों के शासक दोनों धर्मों में से कोई भी धर्म मानने के लिए स्वतन्त्र हैं। इस सन्धि से लूथर द्वारा स्थापित प्रोटेस्टेण्ट धर्म को वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी गई किन्तु जनसाधारण को कोई धार्मिक स्वतन्त्रता न थी। उनके शासक जिस धर्म को मानते थे वही धर्म जनता को मानना पड़ता था, अन्यथा शासक लोग विधर्मियों पर भीषण अत्याचार करते थे। यह धार्मिक अत्याचारों का युग सत्रहवीं शताब्दी तक निरन्तर चलता रहा।

प्रश्न 10.

मार्टिन लूथर कौन था? जर्मनी में उसके धर्म सुधार की सफलता के कारण लिखिए।

उत्तर-

मार्टिन लूथर का परिचय धर्म-सुधार का प्रयास चौदहवीं सदी से प्रारम्भ हो गा था, लेकिन अनुकूल परिस्थितियाँ न होने के ” कारण वह विफल रहा। सोलहवीं दी में जर्मनी में अनुकूल परिस्थितियों के बीच इसने सफलता प्राप्त की। सोलहवीं सदी में जर्मनी में धर्म-सुधार आन्दोलन की सफलता के अनेक कारण थे। जर्मनी में शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता का अभाव था। जर्मनी में अनेक स्वतन्त्र रियासतें थीं। इन रियासतों की सुदीर्घ अभिलाषा यह थी कि पोप की राजनीतिक सत्ता समाप्त हो जाए और उन्हें पोप के बन्धनों से मुक्ति मिले। उस समय दो बड़ी कैथोलिक शक्तियाँ-फ्रांस और पवित्र रोमन साम्राज्य-एक-दूसरे के विरुद्ध भीषण युद्धों में लगी हुई थीं। ये दोनों शक्तियाँ संगठित होकर धर्म-सुधार आन्दोलन को दबाने में असमर्थ थीं। पोप के हस्तक्षेप और पोप को दिए जाने वाले करों के कारण अन्य देशों की अपेक्षा जर्मनी को अधिक भार उठाना पड़ रहा था। इन परिस्थितियों के कारण यूरोप में धर्म-सुधार की लहर सबसे पहले जर्मनी में उठी। इस आन्दोलन का मुख्य संचालक मार्टिन लूथर था। मार्टिन लूथर यूरिन्जिया नामक स्थान पर 1483 ई० में हुआ था। उसने एरफ के विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। कानून तथा धर्म के विषय में उसका ज्ञान प्रशंसनीय था। 1505 ई० में वह पारी (missionary) बन गया। गिरजाघर में अपने को कड़े अनुशासन में रखने के बावजूद लूथर को आन्तरिक शान्ति न मिली। लूथर ने गिरजाघर छोड़ दिया और विटनबर्ग के विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र (Theology) का प्रोफेसर हो गया। धर्मशास्त्र के अध्ययन और अध्यापन के दौरान रोमन कैथोलिक चर्च के कई मन्तव्यों के बारे में लूथर के मन में अनेक शंकाएँ पैदा हो गईं। इसी कारण 1510 ई० में अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसने रोम का भ्रमण किया। रोम में उसने अपनी आँखों से पोप तथा पादरियों का भ्रष्ट जीवन देखा। उस समय पोप अपने धार्मिक कर्तव्ये भूलकर भोग-विलास में लिप्त रहते थे। यह देखकर लूथर पोप के विरुद्ध हो गया तथा उसे धर्म से ग्लानि हो गई। वह एक नया धर्म चलाने का विचार करने लगा, जिसमें पोप के समान भ्रष्ट चरित्र वाले व्यक्ति का कोई नेतृत्व न हो। पोप के विरुद्ध भ्रष्टाचार खत्म करने का अवसर भी आ गया। उस समय पोप न ईसाई लोगों में यह विश्वास प्रचलित कर दिया था कि मनुष्य को मृत्यु के बाद पापों का दण्ड भुगतना पड़ता है, लेकिन पुण्य कार्यों में धन देने से उस दण्ड की मात्रा काम हो जाती है। दण्ड की मात्रा कम करने के लिए पोप पापमोचन-पत्र (Indulgences) जारी किया करते थे। ईसाई लोग अपने पापों से छुटकारा के लिए इन्हें खरीद लिया करते थे। इस प्रकार पापमोचन-पत्र धन एकत्रित करने का साधन बन गए। 1517 ई० में लूथर को पापमोचन-पत्रों के बारे में ता चला तो उसके हृदय में जो आग पहले से जल रही थी वह और भड़क उठी। लूथर ने, जो इस समय विटनबर्ग में प्रोफेसर था, पोप का कड़ा विरोध करना शुरू कर दिया। उसने 95 सिद्धान्तों की एक सूची प्रस्तुत की, जिसमें पोप के सिद्धान्तों का विरोध किया गया था। यह सूची उसने गिरजाघर के मुख्य द्वार पर टाँग दी। इसमें तर्क के द्वारा पोप के धर्म का विरोध किया गया था तथा लूथर का यह कथन था कि इस विषय में कोई भी व्यक्ति उससे तर्क कर सकता है। पोप के धर्म का विरोध करने के कारण लूथर द्वारा प्रचलित यह धर्म प्रोटेस्टैण्ट धर्म (Protestant Religion) के नाम से सम्बोधित किया गया। जर्मनी में इस धर्म का प्रचार तीव्र-गति से हुआ। जर्मनी में प्रोटेस्टैण्ट चर्च की स्थापना की गई तथा उत्तरी जर्मनी की अधिकांश जनता लूथर के नवीन धर्म की अनुयायी बन गई। मार्टिन लूथर के इस विरोध के कारण पोप उसका शत्रु बन गया तथा एक घोषणा के द्वारा उसने लूथर तथा उसके अनुयायियों को धर्म से बहिष्कृत कर दिया। तथापि लूथर का उत्साह कम नहीं हुआ और उसने सम्पूर्ण जर्मनी में क्रान्ति की लहर फैला दी। उसने घूम-घूमकर पोप तथा उसके धर्म के विरुद्ध प्रचार आरम्भ कर दिया। यद्यपि इस समय अनेक व्यक्ति लूथर के अनुयायी बन गए तथापि उसके विरोधियों का भी अभाव नहीं था। जो अभी तक रोमन कैथोलिक धर्म के अनुयायी थे, लूथर से घृणा करते थे तथा उसके मार्ग में अवरोध उपस्थित कर रहे थे। स्पेन, ऑस्ट्रिया तथा फ्रांस जैसे शक्तिशाली देशों के सम्राटों की सहायता पोप को ही प्राप्त थी। स्पेन के सम्राट चार्ल्स पंचम ने लूथर को बुलाकर धर्म-सुधार आन्दोलन बन्द करने की आज्ञा दी तथा उसके मना करने पर लूथर को नास्तिक घोषित कर, दिया। वह लूथर को दण्ड भी देना चाहता था, परन्तु कुछ आन्तरिक समस्याओं से घिरे रहने के कारण वह उसको दण्ड न दे सका। लूथर ने सैक्सनी के राजा के यहाँ शरण ली। अन्त में जर्मनी के विभिन्न राज्यों ने लूथर के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया तथा लूथर की रक्षा करने का वचन दिया। इस प्रकार जर्मनी  में लूथर का धार्मिक आन्दोलन एक प्रकार से राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में परिणत हो गया।

प्रश्न 11.

वास्तुकला के क्षेत्र में रोमन लोगों की देन पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-

वास्तुकला के क्षेत्र में रोमन लोगों की देन को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

Solutions Class 11 Hindi– विश्व इतिहास के कुछ विषय Chapter 7–(बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ)

  1. रोमन लोगों ने ही सबसे पहले कंक्रीट का प्रयोग आरम्भ किया था।
  2. उन्होंने विश्व को ईंट और पत्थर के टुकड़ों को मजबूती से जोड़ने की कला सिखाई।
  3.  उन्होंने वास्तुकला के क्षेत्र में डाटा और गुम्बद का आविष्कार | करके दो महत्त्वपूर्ण सुधार किए। वे एक डाट के ऊपर एक-एक करके अनेक डाट बना सकते थे। इन डाटों का प्रयोग पुल, द्वार और विजय स्मारकों आदि को बनाने में खूब किया गया।
  4.  वे दीवारों पर संगमरमर की पट्टियाँ लगाकर उन्हें सरलता से ऐसा रूप दे सकते थे मानो वे पूर्ण रूप से संगमरमर की ही बनी हो।
  5.  रोमन लोगों द्वारा निर्मित कोलोजियम और पेथियन नामक वास्तुकला ने रोम साम्राज्यकालीन अनेक भवनों की विशिष्टताओं की भवन वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। कोलोजियम एक प्रकार नकल की। का गोलाकार थियेटर (मण्डप) था, जहाँ रोमवासी पशुओं और दासों के दंगल देखा करते थे। पेथियन एक देव मन्दिर । है जिसका गुम्बद लगभग 142 फुट ऊँचा है। यह इतना मजबूत बना हुआ है कि आज भी एक गिरजाघर के रूप में इसका उपयोग किया जा रहा है।
  6. रोमवासी इन्जीनियरिंग कला में भी बहुत पारंगत थे। उन्होंने पानी के पाइपों द्वारा अनेक नगरों में पानी पहुँचाया। उनके द्वारा तैयार किए गए पुल, सड़कें आज भी उपयोग में आ रहे हैं।
  7.  रोमन लोगों द्वारा भित्तिचित्रों को बनाने की कला का भी खूब विकास किया जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण दिवार को चित्रित कर दिया जाता है।

प्रश्न 12.

काल्विन कौन था? काल्विनवाद के प्रमुख सिद्धान्त व विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर :

जिस प्रकार जर्मनी में धर्म-सुधार का नेतृत्व-भार लूथर ने सँभाला था, उसी प्रकार फ्रांस में काल्विन ने रोमन कैथोलिक धर्म के दोषों को दूर करने के लिए प्रोटेस्टैण्ट धर्म को जन्म दिया। वह धर्म-सुधार का दूसरा और अधिक प्रभावशाली नेता था। जन्म से वह फ्रांसीसी था। उसका जन्म 1509 ई० में हुआ तथा उसने पेरिस और ऑरलेयाँ विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। वह उच्च विचारों वाला व्यक्ति था और धार्मिक कुरीतियों से उसे घृणा थी। लूथर के विचारों से वह अत्यधिक प्रभावित हुआ तथा 1533 ई० में उसने प्रोटेस्टैण्ट धर्म का अवलम्बन किया, किन्तु फ्रांस के कैथोलिक सम्राट फ्रांसिस के अत्याचारों के कारण अपना देश छोड़कर उसे स्विट्जरलैण्ड में शरण लेने के लिए बाध्य होना। पड़ा। स्विट्जरलैण्ड में धर्म-सुधार ज्विगली के सम्पर्क में आकर उसने प्रोटेस्टैण्ट धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। 1536 ई० में उसने एक पुस्तक ‘Institute of the Christian Religion प्रकाशित की, जिसमें प्रोटेस्टैण्ट धर्म का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया था। इस पुस्तक से काल्विन अत्यधिक प्रसिद्ध हो गया। वह अपने सम्राट फ्रांसिस को भी प्रोटेस्टैण्ट बनाना चाहता था। परन्तु इस कार्य में उसे सफलता प्राप्त न हो सकी। 1538 ई० तक उसने जेनेवा में प्रोटेस्टैण्टों का नेतृत्व किया, किन्तु विरोध के कारण 1539 ई० में उसे जेनेवा छोड़ना पड़ा। उसके जाते ही जेनेवा में पुन: कैथोलिकों का बोलबाला हो गया तथा उन्होंने प्रोटेस्टैण्टों का विनाश करने का प्रयास किया। 1541 ई० में अपने अनुयायियों की सुरक्षा के लिए काल्विन पुनः जेनेवा आया। यहाँ उसने कठोर धर्मतन्त्रात्मक व्यवस्था स्थापित करके शासन सूत्र अपने हाथ में ले लिया। गन्दे नृत्य, गीत, त्योहार व थियेटरों को बन्द करा दिया तथा उसने अन्धविश्वासी कैथोलिकों को मृत्युदण्ड देने में भी संकोच नहीं किया। ‘बाइबिल’ का अनेक भाषाओं में अनुवाद कराया गया जिसके कारण यह ग्रन्थ लोकप्रिय हो सका। अपने धर्म-प्रसार के लिए उसने कई प्रोटेस्टैण्ट विद्यालयों की स्थापना की तथा जेनेवा को प्रोटेस्टैण्ट धर्म का केन्द्र बना दिया। अपने विरोधियों का दमन करने के लिए प्रयास करते थे। काल्विन इतना कट्टर प्रोटेस्टैण्ट था कि उसको ‘प्रोटेस्टैण्ट पोप’ की उपाधि प्रदान की गई। परन्तु काल्विन ने अत्यन्त दृढ़तापूर्वक धर्म-प्रसार का कार्य निरन्तर जारी रखा तथा कुछ काल में ही वह प्रसिद्ध धर्म-सुधारक बन गया। देशी भाषा में धर्म प्रचार करने के कारण उसके अनुयायियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी तथा उसके धर्म का प्रभाव इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड एवं हॉलैण्ड आदि देशों पर पड़ा। काल्विन द्वारा प्रचारित धर्म शीघ्र ही इन देशों में फैलने लगा। नीदरलैण्ड्स के लोकतन्त्र, लोकतन्त्रवादी उच, स्कॉटलैण्ड के कॉन्वेण्टेटर (Conventator) और इंग्लैण्ड के प्यूरिटन इसी धर्म की देन थी। डचों ने फिलिप के अत्याचारी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर डच गणतन्त्र की स्थाना करके ही दम लिया। कॉन्वेण्टेटरों ने चार्ल्स प्रथम के विरोध के बावजूद राष्ट्रीय धर्म की सुरक्षा की तथा प्यूरिटनों ने स्टुअर्ट राजाओं के स्वेच्छाचारी शासन का कड़ा विरोध किया। जेनेवा प्रोटेस्टेण्ट लोगों का शरण-स्थल बन गया तथा अनेक देशों के अत्याचार-पीड़ित प्रोटेस्टैण्ट आकर यहाँ शरण प्राप्त करने लगे। ग्राण्ट (Grant) के अनुसार, “महाद्वीप के एक विशेष भाग में काल्विन के नाम एवं प्रभाव का विस्तार कुछ ही वर्षों में हो गया। उसका आन्दोलन केवल जेनेवा तक ही सीमित न रहा अपितु फ्रांस, इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड और नीदरलैण्ड में भी उसका प्रचार हुआ।

काल्विनवाद के प्रमुख सिद्धान्त एवं विशेषताएँ

काल्विन रोमन कैथोलिक धर्म के आडम्बर तथा रूढ़ियों में विश्वास नहीं रखता था। उसका धर्म सरल, सदाचारपूर्ण तथा पवित्र जीवन व्यतीत करना सिखाता था। ‘भाग्यवाद’ उसके धर्म का मूल सिद्धान्त था। पोप एवं पादरियों के भ्रष्ट जीवन का भण्डाफोड़ करके उसने जनता को बताया कि इस प्राचीन धर्म पर चलंकर उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। ईश्वर मनुष्य को स्वर्ग एवं मोक्ष देने वाला है। वह इस संसार का सृजन करता है तथा उसी की इच्छा से मनुष्य का भाग्य निर्मित होता है। ईश्वर की सर्वशक्ति में वह पूर्ण विश्वास रखता था। उसका विचार था कि बिना ईश्वर की कृपा के मोक्ष अथवा स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसके विचार में चर्च राज्य था और राज्य चर्च, अर्थात् राज्य और चर्च में कोई अन्तर नहीं था। राज्य की नागरिकता चर्च की सदस्यता पर निर्भर करती थी। काल्विन प्रजातन्त्रात्मक चर्च का पक्षपाती था। उसका विचार स्था कि चर्च की व्यवस्था जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में होनी चाहिए। इस प्रकार वह एक चर्च सरकार स्थापित करने का इच्छुक था। ‘बाइबिल’ में काल्विन को पूर्ण विश्वास था तथा वही उसका प्रमुख धर्म-ग्रन्थ था। ‘बाइबिल’ को ईश्वर की वाणी समझकर काल्विन उसकी पूजा करता था। धर्म में राज्य को हस्तक्षेप काल्विन की दृष्टि से अनुचित था। उसका विश्वास था कि प्रजा को धर्म का अनुसरण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। धर्म-प्रचार तथा चर्च को अनुशासित रखने के लिए काल्विन ने चर्च के अधिकारियों की एक समिति बनाई तथा कठोर अनुशासन द्वारा पादरियों के भ्रष्टाचारपूर्ण जीवन को रोककर उन्हें पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया। काल्विन के धार्मिक सिद्धान्त लूथर के सिद्धान्तों से काफी मिलते-जुलते थे। उसने भाग्यवाद, चर्च के प्रजातन्त्रात्मक संगठन तथा कठोर अनुशासन को धर्म का आधार मानकर धर्म-प्रचार किया तथा उसे भी लूथर के समान काफी सफलता मिली।

एनसीईआरटी सोलूशन्स क्लास 11 विश्व इतिहास के कुछ विषय पीडीएफ